हेलो दोस्तों क्या आप भी Real Life Motivational Stories in Hindi के बारे में सर्च कर रहे हैं| तो आप बिल्कुल सही जगह पर आए हैं, क्योंकि इस लेख में हम आपके साथ असल जीवन में सफलता हासिल कर चुके लोगो के बारे में कहानियां शेयर करने जा रहे है, जिनकी कहानियां पढ़कर आप जरूर Motivate होंगे| यह कुछ असल हीरो है, जिन्होंने लगातार मेहनत और अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके अपने लिए एक बेहतर दुनिया बनाई है | तो चलिए इन कहानियों की मदद से आपको भी इन्हीं की तरह आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें|
Coca Cola इंडिया की Success Story – Real Life Motivational Stories in Hindi
आखिर कैसे Coca-Cola ने भारत के ग्रामीण क्षेत्र को अपने मार्केटिंग स्ट्रेटजी के बदौलत किया कैप्चर ? और अब यही ग्रामीण क्षेत्र पूरे Coca-Cola के प्रॉफिट में करीब 38% का योगदान देते हैं | तो चलिए जानते हैं आखिर Coca-Cola ने यह किया कैसे और उनके सामने कौन कौन सी मुश्किलें आईं और Coca-Cola इससे कैसे बाहर आई |
Coca-Cola अपनी बेहतरीन मार्केटिंग स्ट्रैटेजिस की बदौलत सारी दुनिया में लोकप्रिय हो रहा था | Coca-Cola का एक सीक्रेट सिरप था जो कि वह अपनी सारी फ्रेंचाइजी में डिसटीब्यूट करते और फ्रेंचाइजी मॉडल की मदद से Coca-Cola ने दुनिया का बहुत बड़ा क्षेत्र कवर कर लिया था | लेकिन अभी भी Coca-Cola से बहुत बड़ा मार्केट अछूता रह रहा था जो कि था भारत का ग्रामीण क्षेत्र |
अब इसके दो तीन कारण थे सबसे पहला था Availability- ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी-छोटी दुकानें थी और बिजली की भी काफी समस्या थी | जिसकी वजह से कोई भी दूकानदार फ्रिज नहीं रख सकता था | इसलिए दुकानदार बड़े अमाउंट में Coca-Cola का स्टॉक नहीं रखते थे | Coca-Cola ने इस परेशानी को सॉल्व करने के लिए ऐसे दुकानदारों को फ्रीज देना शुरू कर दिया जो कि Coca-Cola की ब्रांडिंग के साथ था | अब दुकानदार आराम से Coca-Cola का काफी सारा स्टॉक कर सकते थे |
अब इस परेशानी को दूर करने के बाद Coca-Cola के सामने एक और बहुत बड़ी प्रॉब्लम थी जो की थी Accessibility- क्योंकि गांव के रास्ते बहुत कच्चे थे और Coca-Cola को ट्रांसपोर्ट करना भी काफी मुश्किल हो रहा था | तो अब इन्होंने Coca-Cola के सप्लाई डायरेक्ट मैन्युफैक्चरिंग से रिटेलर्स को करना शुरू कर दिया |
अभी भी Coca-Cola के सामने एक और बहुत बड़ी परेशानी थी जो की थी cost | क्योंकि इंडियन मार्केट बहुत ज्यादा ही Cost Sensitive होती है | मार्केट में कोई भी महंगी चीज लोग आसानी से नहीं खरीदते और यह तो ग्रामीण क्षेत्र की बात थी | फिर Coca-Cola ने छोटा कोला launch किया |
इसमें उन्होंने Coca-Cola की क्वांटिटी को कम कर दिया और price को ₹10 से ₹5 कर दिया | फिर इन्होंने इसकी बहुत ज़्यदा मार्केटिंग की | मार्केटिंग ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरीकों से हो रही थी | गांव में बहुत बड़े-बड़े बैनर बनवा दिए और दीवारों में coca-cola की ब्रांडिंग की पेंटिंग करवा ली| जिसने लोगों का बहुत ध्यान केंद्रित किया| लोग अब Coca-Cola पर विश्वास जताने लग गए |
लेकिन अभी भी Coca-Cola के सामने एक सबसे बड़ी चुनौती थी जो की थी Accessibility. क्योंकि भारत में लोग ज़्यादातर ठंडे मै लस्सी, छाछ और नींबू पानी का ही सेवन करते थे | जैसे कोई भी मेहमान घर पर आते हैं तो उन्हें हम पूछते हैं आप ठंडा लेंगे या गरम | तो ठंडे में ज्यादातर लस्सी, नींबू पानी ही आते थे और वहीं Coca-Cola को accept करना लोगों के लिए काफी मुश्किल था |
लेकिन जैसे कि आपको पता चल ही रहा होगा Coca-Cola की मार्केटिंग स्ट्रेटजी बहुत ज्यादा अच्छी है| इसके लिए Coca-Cola ने टेलीविज़न में ऐड चलानी शुरू की | उस समय आमिर खान इनके ब्रांड एम्बेस्टर थे तो उन्होंने टोटल 3 ऐड चलाएं | जिसका मकसद लोगों तक सिर्फ यही बात पहुचानी थी कि ठंडा मतलब Coca-Cola | अब इन ऐड्स की मदद से Coca-Cola की मार्केटिंग टीम ने लोगों के दिमाग में यह बात डाल दी कि अगर कोई ठंडा मांगे तो उन्हें Coca-Cola दी जाए क्यूंकि ठंडा मतलब Coca-Cola | इन विज्ञापन की वजह से Coca-Cola ब्रांड के प्रति जागरूकता सभी लोगों तक फैलने लग गयी |
फिर इन सभी strategies से Coca-Cola ने 2001 मै 80000 गाँव को कवर किआ और वही 2003 में यह आंकड़ा बढ़कर 160000 हो गया मतलब कि Coca-Cola ने सिर्फ दो ही सालों में दुगना बिजनेस किया | तो दोस्तों यह थी Coca-Cola की मार्केटिंग स्ट्रेटजी जिसकी मदद से बाहर का ब्रांड होने के बावजूद भी इंडिया का ग्रामीण क्षेत्र बहुत अच्छे से कैप्चर किया, और ग्रामीण ही क्या शहरी क्षेत्र भी Coca-Cola की दीवानी है और भर-भर कर इसे प्यार देती है |
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छोटी दुकान से Subway तक का सफर
” चलिए दोस्तों जानते हैं एक छोटी सी दुकान से कैसे बनी दुनिया की सबसे बड़ी फास्ट फूड रेस्टुरेंट चैन Subway “
एक शहर में Fred DeLuca नाम का एक व्यक्ति रहता था | वह काफी गरीब घर से था | लेकिन पढ़ाई में बहुत रुचि रखता था | वह यूनिवर्सिटी में जाकर अपनी डॉक्टरेट की पढ़ाई करना चाहता था | लेकिन पैसे ना होने के कारण वे यूनिवर्सिटी नहीं जा पाया | वह इतने गरीब थे की खुद का खर्च भी उठाना मुश्किल था लेकिन फिर भी उन्होंने 45,000 से भी ज्यादा फ्रैंचाइज़ी वाली रेस्टुरेंट चैन खोली |
फिर उसके फॅमिली फ्रेंड रिचर्ड ने उसे $1000 दिए और कहा कि तुम कोई छोटा मोटा बिजनेस शुरू कर लो | जिससे तुम्हारा भी गुज़ारा चल जाए और तुम अपने कॉलेज की फीस भी भरते रहना | फिर क्या था Fred ने एक हेअल्थी और सस्ता सैंडविच बेचने का निर्णय किया | Fred ने छोटी सी दुकान खोली और अपने सेंडविचेस बनाकर बेचने लग गया | उस समय उस दुकान का नाम Fred ने रखा Petes Super Submarine जिसे आगे जाकर उसने बदल दिया क्योंकि वह Pizza Marine से काफी मिलता-जुलता था |
फिर Fred ने Petes Super Submarine का नाम बदलकर Petes Subway रख दिया | जब कुछ महीने बीत गए तो Fred ने देखा कि वह बिज़नेस घाटे मै जा रहा था | काफी महीने बीत चुके थे और उससे कोई भी मुनाफा नहीं हो रहा था | फिर मजबूरन रिचर्ड और Fred को अपना यह रेस्टोरेंट्स बंद करना पड़ा |
फिर दोनों ने मिल के एक और रेस्टुरेंट खोला लेकिन यह रेसुरेन्ट भी नहीं चला | हालाँकि यह रेस्टोरनेट घाटे मै नहीं गया लेकिन उन्हें बहुत कम ही प्रॉफिट हुआ जिसके बल पे रेस्टुरेंट चलाना काफी मुश्किल था | लेकिन दोनों हताश नहीं हुए क्यूंकि दोनों के दिल में हमेशा कुछ सीखने की और अलग करने की इच्छा थी, और वह दोनों हिम्मत नहीं छोड़ने वाले थे |
फिर 1968 में दोनों ने एक नया रेस्टोरेंट खोला जिसका नाम उन्होंने Subway रखा | जिसमें वह हल्दी सैंडविच और सैलेड सेल किया करते थे | धीरे-धीरे Subway की लोकप्रियता लोगों में बढ़ती चली गई | जो लोग डाइट कॉन्शियस थे वह Subway जाते थे और जो नहीं भी थे वह भी Subway का टेस्ट पसंद करने लग गए थे |
Subway की क्रिएटिव ordering process लोगों को पसंद आने लग गई | जिसमें वह अपनी पसंद की टॉपिंग्स और सॉसेस ऐड करवा सकते थे | फिर Fred और Peter ने दोबारा पीछे मुड़कर नहीं देखा | जैसे कि वह यूनिवर्सिटी जाना चाहते थे और न की बिजनेसमैन, तो Fred ने अपना यूनिवर्सिटी जाने का सपना भी पूरा किया | वह यूनिवर्सिटी गए और अपना अपनी स्टडी पूरी की |
Subway की लोकप्रियता लोगों मै बहुत बढ़ने लग गयी थी और अब Fred और Peter ने इसकी फ्रैंचाइज़ी खोलनी शुरू कर दी थी | 1978 मै उन्होंने अपने 100 स्टोर्स खोल दिए जो की आगे बढ़ कर 1987 तक 1000 हो गये |
फिर 2015 में Fred की लेकिमिया से मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के बाद उनकी बहन को कंपनी का CEO बना दिया गया | तो दोस्तों जैसे Fred और रिचर्ड ने हार नहीं मानी और वह लगातार कुछ अलग करते चले गए | वैसे ही हमें भी जीवन में हार नहीं माननी चाहिए और लगातार मेहनत करने से नहीं मालूम की कितनी छोटे पैमाने पर शुरू की गई चीज आगे जाकर कितनी बड़ी हो जाए|
Parle G बिस्कुट की सफलता की कहानी
दोस्तों इस पोस्ट में हम Parle G Success Story पड़ेंगे | जैसे कि आप सभी जानते हैं Parle-G इंडिया का सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला ग्लूकोस बिस्किट है | लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि Parle-G का सबसे पहला प्रोडक्ट बिस्किट नहीं था | Parle सबसे पहले ऑरेंज कैंडी सेल किया करते थे और लगातार 10 सालों तक ऑरेंज कैंडी सेल करने के बाद Parle ने Parle G बिस्किट बनाना शुरू किया, चलिए पढ़ते है Parle G Biscuit Story.
उस समय देश आजाद नहीं था और भारत में बिस्किट सिर्फ अमीर वर्ग के लोग खाया करते थे क्योंकि उस वक्त बिस्किट बाहर देश से इम्पोर्ट होता था | उनका दाम भी बहुत ज्यादा होता था जिससे गरीब वर्ग के लोगों के लिए इसे खाना लगभग नामुमकिन ही था | तब Parle के मालिक मोहनलाल दयाल Mohanlal Dayal ने यह फैसला किया कि वह इंडिया का अपना ब्रांड बनाएंगे और सबसे सस्ते बिस्किट बनाकर सेल करेंगे | जिससे गरीब से गरीब भी बिस्किट को खा सकता था |
Parle-G का पहला नाम था पारले ग्लूकोस था लेकिन आजादी के बाद काफी ज्यादा अलग अलग ग्लूकोस बिस्किट बनाने लग गए जिससे लोगों को यह भी पहचानने मै दिक्क्त होने लगी क़ूँकि वह ब्रांड हूबहू ग्लूकोस बस्किट बनाने लग गए थे | इसलिए Parle-Glucose फिर Parle-G बन गया और अपनी पैकेजिंग भी अलग कर दी | जिससे अब लोगों के लिए Parle-G को पहचाना आसान हो गया था |
Parle-G की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही थी और आजादी के बाद Parle-G ने एक टेलीविजन पर विज्ञापन चलाना शुरू किआ | जिसकी वजह से Parle-G की सेल लगभग 10 गुना बढ़ गई | इसमें उन्होंने यह दर्शाया कि यह बिस्किट अंग्रेजी ब्रांड के बिस्किट को भारत से हटाने के लिए लाया गया है | लोगों ने इस विज्ञापन को बहुत पसंद किया क्योंकि भारत तब आजाद ही हुआ था और सभी लोगों के दिलों में देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी |
फिर क्या था Parle-G दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा था | लेकिन Parle-G की सबसे अच्छी बात यह थी कि उसने कभी भी अपनी कीमत नहीं बढ़ाई | एक बार Parle-G ने अपना बिस्किट जो ₹5 मिलता था उसका दाम बढ़ाकर ₹5.50 पैसे कर दी थी जिससे Parle-G को बहुत घाटा हुआ था | अब Parle-G के मालिक समझ चुके थे कि उनका प्रोडक्ट बहुत ज्यादा कॉस्ट सेंसेटिव है |
इसलिए उन्होंने लगभग 28 वर्ष के बाद भी अपने बिस्किट के दाम नहीं बढ़ाएं | लेकिन उन्होंने प्रॉफिट बहुत कमाया ? अब आप सोच रहे होंगे कि इतने साल अपने बिस्किट का दाम नहीं बढ़ा कर आखिर Parle इतना प्रॉफिट कैसे कमा रहा है | Parle समझ चुका था कि उसका Parle-G बिस्किट एक low profit product है जिसका मतलब parle कंपनी Parle-G से कोई प्रॉफिट नहीं कमाती है |
लेकिन उसके पास और अन्य बहुत सारे प्रोडक्ट है जिनकी कीमत वह बढ़ाते रहते हैं | लेकिन कंपनी के एक positive impact के लिए वे Parle-G इतने वर्षों के बाद भी अपने दाम नहीं बढाती हालांकि उन्होंने पैकेट का साइज जरूर छोटा कर दिया है | पहले ₹5 में मिलने वाला parle-g का वजन लगभग 90 से 100 ग्राम था और वहीं अब घटाकर 40 से 50 ग्राम कर दिया गया है|
Parle-G के सक्सेस में उसकी मार्केटिंग स्ट्रेटजी का बहुत बड़ा हाथ है चाहे अब मार्केट में कितने अलग-अलग बिस्किट के विकल्प है लेकिन Parle-G हमें बचपन की यादों से जुड़े रखता है और आज भी इतने सालों के बाद भी हर घर में Parle-G बिस्किट खाया जाता है | बचपन की याद ताजा रखने के लिए Parle-G ने अपने पैकेजिंग और उस पर लगी बच्ची की फोटो नहीं बदली जिससे हर कोई व्यक्ति अपनी बचपन की यादों से जुड़ सकता है |
तो दोस्तों यह थी Success Story of Parle g जिस वक्त आप यह ब्लॉक पढ़ रहे हैं तो लगभग 5000 से 10000 लोग Parle-G खा रहे होंगे |
25 रूपए से 7,000 करोड़ का होटल एम्पायर किया खड़ा
दोस्तों अगली Real Life Motivational Stories in Hindi में शामिल करना चाहूंगी Oberoi Group की सक्सेस स्टोरी को क्योंकि यह स्टोरी आप सभी को बहुत inspire करने वाली है | जानेंगे कैसे Oberoi Group के मालिक Rai Bahadur Mohan Singh Oberoi ने सिर्फ ₹25 से 7,000 करोड़ टर्नओवर वाले होटल का एम्पायर खड़ा किया |
तो चलिए देखते हैं ओबेरॉय होटल का सफर | Rai Bahadur Mohan Singh Oberoi 15 अगस्त 1898 में पाकिस्तान के एक छोटे से शहर में पैदा हुए थे | मोहन सिंह जी बहुत ही गरीब घर से थे और जब वह मात्र 6 महीने के थे तो उनके पिता की मृत्यु हो गई थी | जिसके बाद मजबूरन उनकी माता को परिवार की जिम्मेदारी को उठाना पड़ा | उस वक्त किसी महिला का घर चलाना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी | इसीलिए बचपन से ही मोहन सिंह जी ने सोच लिया था कि वह कोई नौकरी करंगे और अपनी माता का बोझ हल्का करंगे |
इसी के लिए मोहन सिंह जी रावलपिंडी चले गए और एक गवर्नमेंट कॉलेज से उन्होंने graduation किया | Graduation होने के बावजूद भी मोहन सिंह जी को नौकरी मिलने में बहुत परेशानी आ रही थी | तो अपने किसी दोस्त की सलाह मानकर मोहन जी ने अमृतसर के एक टाइपिंग इंस्टीट्यूट में टाइपिंग सीखना शुरू कर दिया |
मोहन जी हर काम को बहुत ही मेहनत से करते थे लेकिन टाइपिंग सीखने के दौरान वह समझ चुके थे कि टाइपिंग सीखने से भी उन्हें कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलने वाली | उन्हें काफी वक्त हो गया था वह अमृतसर में रह रहे थे | लेकिन अब बड़े शहर में रहकर खर्चा पूरा करना उनके लिए बहुत मुश्किल हो रहा था और उनके पैसे भी खत्म हो चुके थे | इसीलिए उन्होंने अपने शहर वापस जाने का सोचा |
बहुत जगह कोशिश करने के बावजूद भी उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी | फिर उनके किसी रिश्तेदार की जूतों की फैक्ट्री थी तो मजबूरन मोहन जी को उस फैक्ट्री में काम करना पड़ा | हालांकि उनकी पढ़ाई के मुताबिक यह नौकरी उन्हें बहुत छोटी लग रही थी, लेकिन फिर भी वह कुछ पैसे कमा पा रहे थे | लेकिन कहते हैं ना जब किस्मत खराब होती है तो हर तरीके से हमारे ऊपर मुसीबत आन पड़ती है | किसी कारणवश वह जूतों की फैक्ट्री भी बंद हो गई और अब मोहन जी जितना कमा पा रहे थे वह भी बंद हो गया |
वह जिंदगी से काफी परेशान थे और इसी बीच मोहन जी की शादी तय हो गई | एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था कि उस वक्त ना उनके पास नौकरी थी और ना ही पैसे लेकिन फिर भी ना जाने मेरे ससुर जी को मुझ में क्या दिखा जो उन्होंने अपनी बेटी की शादी मुझसे करवा दी शायद उन्हें मेरा स्वभाव बहुत अच्छा लगा था | फिर Mohan Singh जी की Ishran Devi से शादी तय हो गई |
शादी के बाद रायबहादुर ज्यादातर समय अपने ससुराल ही रहने लग गए और वहीं पर कोई नौकरी ढूंढने की कोशिश कर रहे थे | काफी समय बीत गया तो वह अपने मां से मिलने अपने शहर वापस गए | लेकिन उस वक्त वहां पर Plague नाम की बीमारी फैली हुई थी और हर परिवार के लोग इस बीमारी से जुज रहे थे | उनकी मां को भी यह बीमारी हो गई थी इसीलिए उन्होंने मोहन जी को वहां रहने नहीं दिया और कहा कि तुम अपने ससुराल जाकर वहां कोई काम सीख लो और अब थोड़े पैसे जोड़ लो |
वह अपनी मां को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे लेकिन उनकी मां ने उन्हें ₹25 हाथ में थमा कर वहां से रवाना होने को कह दिया और मोहन जी अपनी माँ की बात टाल न सके और माँ के दिए हुए ₹25 लेके वहा से चले गए | लेकिन उस वक्त उन्हें पता नहीं था कि इस ₹25 से उनकी तकदीर पूरी तरह से बदलने वाली है |
मोहन जी को पैसे लेकर अपने ससुराल वापस चले गए | उस वक्त उन्होंने अखबार में इश्तहार पड़ा जहां उन्होंने देखा कि शिमला में एक गवर्मेंट पोस्ट निकली है और यह पोस्ट कलर की थी मोहन जी को अपनी पढ़ाई के अनुसार यह जॉब सही लगी और वे उस एग्जाम को देने शिमला जा पहुंचे | तब मोहन जी को पता नहीं था कि शिमला में उनकी किस्मत बदलने वाली है हालांकि वे इस एग्जाम को पास नहीं कर पाए |
लेकिन शिमला में उनकी किस्मत बदल गयी | कुछ दिन शिमला में बिताते हुए मोहन जी 1 दिन चलते चलते वह CECIL होटल जा पहुंचे | वह होटल रहने के इरादे से नहीं बल्कि काम करने के इरादे से गए थे | उस वक्त CECIL होटल शिमला का सबसे बड़ा और जाना माना होटल था | उस वक्त शिमला में ब्रिटिश हुकूमत थी |
फिर CECIL होटल के मैनेजर से बात करने के बाद मोहन सिंह ओबरॉय को वहां पर एक क्लर्क की जॉब मिल गई | उस वक्त उन्हें ₹40 प्रतिमा पगार मिलती थी | मोहन सिंह ओबरॉय ने अब चैन की सांस ली क्योंकि काफी समय मशक्कत करने के बाद अब उन्हें कोई नौकरी मिली थी और इस नौकरी में वह अपनी जान लगा देना चाहते थे |
मोहन जी बहुत ही इमानदारी से इस नौकरी को कर रहे थे और और होटल के मालिक उनसे बहुत खुश थे | इसी तरह लगातार मेहनत करने से मोहन जी एक वक्त में मैनेजर, क्लर्क और हाउसकीपिंग सभी का काम आराम से संभाल लेते थे | जिससे इंग्लिश मैनेजर ने खुश होकर मोहन जी को क्लर्क से केशियर बना दिया और ₹40 से बढ़ाकर पगार भी ₹50 कर दी |
इसी के साथ साथ उन्होंने उसे होटल अकोमोडेशन पर प्रदान करी जिसमे उन्हें होटल की और से रहने के लिए कमरा दिए गया | जिसकी वजह से मोहन जी ने अपनी पत्नी Ishran Devi को भी वहीं पर बुला लिया | अब मोहन जी होटल मैं हर तरीके का काम कर लेते थे और इस मै उनकी पत्नी भी मदद किया करती थी|
इसी तरह एक दिन पंडित नेहरू ने मोहन सिंह जी को कुछ टाइपिंग का काम दिया और रात भर बैठ कर उन्होंने वह टाइपिंग का काम खत्म करके सुबह नेहरू जी को पकड़ाया | इस पर पंडित नेहरू बहुत खुश हुए और उन्होंने उन्हें ₹100 दिए | वह कहते हैं ना अगर हमने कोई चीज सीखी हो तो वह कभी जाया नहीं जाती | इसीलिए मोहन जी की टाइपिंग सीखी हुई उन्हें काम आई |
एक दिन CECIL होटल का मैनेजर क्लार्क 1 महीने की छुट्टी पर गए और इस इस बीच सारा काम मोहन सिंह ओबरॉय पर सौंप कर चले गए | इसी बीच उन्होंने बहुत बखूबी से इस काम को किया और होटल का मुनाफा भी दोगुना कर दिया | क्योंकि अभी तक मोहन जी होटल इंडस्ट्री को बहुत अच्छे से समझ चुके थे और फिर जब होटल मैनेजर वापस आए और होटल की प्रोग्रेस देखकर उन्हें बहुत खुशी हुई और जब होटल के मैनेजर क्लार्क ने खुद का होटल कार्टन खोला तो इसमें उन्होंने मोहन सिंह ओबरॉय को मैनेजर की नौकरी दी |
जब क्लार्क ने पूरी तरीके से इंग्लैंड शिफ्ट होने का सोचा तो उन्होंने मोहन सिंह ओबरॉय को यह होटल बेच दिया | इसी बीच CECIL होटल के मालिक जोकि दो ब्रिटिश जोड़ा थे | उन्हें भी भारत छोड़कर जाने की नौबत आ गई क्योंकि देश आजाद होने वाला था और ब्रिटिश हुकूमत की पकड़ भारत पर कमजोर होती जा रही थी |
उस वक्त इस जोड़े ने मोहन सिंह ओबरॉय को यह होटल 25,000 में खरीदने को कहा | इसके लिए मोहन जी ने अपनी पैतृक संपत्ति और अपनी पत्नी के जेवरात भी बेच दिए और पूरे 5 साल छोटे छोटे किस्तों में पैसे देते हुए उन्होंने 14 अगस्त 1934 में CECIL होटल भी खरीद लिया | अब मोहन सिंह ओबेरॉय शिमला में दो होटलों के मालिक थे |
मोहन सिंह ओबरॉय ने 1947 में Oberoi Palm Beach के नाम से होटल खोला और इसी के साथ-साथ जब उन्होंने देखा की tourist को भारत आते हुए फ्लाइट से अकोमोडेशन की काफी ज्यादा परेशानी होती है इसीलिए उन्होंने Mercury Travels Company नाम से एक ट्रेवल कंपनी भी खोल ली | अब मोहन सिंह ओबरॉय पूरी तरीके से इस बिजनेस को समझ चुके थे और भारत में hotel industry की जो भी कमियां थी उन सभी कमियों को दूर करने मै लग गए |
उन्होंने देखा कि Airlines में खाना बहुत ही कम क्वालिटी का मिलता है इसीलिए उन्होंने Airlines में अपना खाना भी supply करना शुरू कर दिया | उन्होंने भारत में देखा कि पैलेस में भी होटल बन सकते हैं इसीलिए उन्होंने एक पैलेस लीज पर लेकर उसमें होटल बना दिया | उन्होंने शिमला और दार्जिलिंग जैसे पर्यटक स्थल मै Oberoi group के होटल खोलना शुरू कर दिया |
उस दशक में भारत में 5 Star होटल्स नहीं थे | इसीलिए उन्होंने सबसे पहला 5 Star ओबेरॉय होटल दिल्ली में खोला | इसके बाद 1949 में The East India Hotel खोला जिसमें बहुत ही प्रीमियम गेस्ट को सर्विस दी जाती थी | इसी तरह 1966 में उन्होंने मुंबई में सबसे बड़ा होटल जोकि 36 माले की बिल्डिंग थी जो कि कुल 18 करोड़ में खोला गया होटल था |
तो दोस्तों देखिए मोहन जी ने मात्र 25000 में होटल खोलने की शुरुआत से लेकर 18 करोड़ तक के होटल खोल लिए | इसीलिए ही शायद उन्हें होटल इंडस्ट्री का फादर भी कहा जाता है | मोहन जी एक बहुत बड़े होटल उद्योगपति होने के साथ-साथ एक बहुत ही अच्छे इंसान भी थे | वे अपने हर एक स्टाफ को उसके नाम से जानते थे क्योंकि वह कहते थे कि अगर हम अपने स्टाफ को खुश रखेंगे तो तभी वह हमारे गेस्ट को खुश रखेंगे |
मोहन सिंह जी के ने जब देखा तो उन्हें यह आभास हुआ कि लोग भारत में आने से ज्यादा आसपास के पड़ोसी देशों में जा रहे है | जिसकी वजह थी पड़ोसी देशों की होटल इंडस्ट्री की बेहतर समझ | जब पर्यटक भारत में आते थे तो उन्हें काफी ज्यादा दिक्कतें होती थी इसीलिए वह भारत के अलावा और भी देशों में जाने लग गए | इसीलिए उन्होंने यह डिसीजन लिया कि वह पड़ोसी देशों में भी अब अपने होटल्स खोलना शुरू करेंगे |
इसीलिए उन्होंने इंडोनेशिया, इजिप्ट, नेपाल और श्रीलंका जैसे देशों में अपने होटल खोल लिए | जिसकी संख्या अभी भी लगातार बढ़ती ही जा रही है | जो भी गेस्ट एक बार ओबरॉय होटल आ जाए तो वह कभी किसी और दूसरे होटल में नहीं जाएगा | क्योंकि ओबरॉय होटल की सर्विस बहुत ही बेहतरीन है | वह अपने गेस्ट को Airport से लेने तक और उसके खाने से और सोने तक का बहुत अच्छा ख्याल रखती है |
मोहन ओबरॉय इस बात का बहुत ध्यान रखते थे कि उनके सभी होटल्स में बेड बहुत अच्छी तरीके से बने हो और हर एक चीज अपनी जगह बहुत ही अच्छी तरीके से रखी गई हो | क्योंकि उनका मानना था कि गेस्ट छोटी से छोटी चीज को भी ध्यान देते हैं भले ही वह ना बताएं | जब भी कोई गेस्ट कुछ डाइनिंग में ऑर्डर करता है या फिर उनकी कोई सर्विस लेता है तो उन्हें हर एक चीज के बारे में बहुत ही डिटेल के में समझाया जाए |
यानि अगर वह एक छोटी सी भी डिश आर्डर कर रहे हैं तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि उस डिश में क्या डाला है या वह कौन सी सर्विस ले रहे हैं| इसी तरह हर एक छोटी छोटी चीजों का ध्यान रखने से वह अपने गेस्ट को बहुत खुश करा कर भेजते हैं | इसीलिए जब भी वह वापस इंडिया या फिर किसी और देश जाते हैं तो ओबरॉय होटल के अलावा किसी और होटल में जाना पसंद नहीं करे | तो यह थे कुछ मोहन सिंह ओबरॉय के असूल जिन्हें वह फॉलो करते हुए इतनी बड़ी ओबरॉय चैन बना पाए |
Conclusion
आशा करती हूं यह Real Life Motivational Stories in Hindi आपको बहुत इन्स्पिरिंग लगी होगी | अगर आप किसी अनु सफल लोगों की कहानी के बारे में जानना चाहते हैं तो नीचे कमेंट सेक्शन में जरूर लिखकर बताएं और अगर इन कहानियों से संबंधित आपको किसी भी प्रकार का कोई प्रश्न हो तो भी आप कमेंट सेक्शन में हमे बता सकते हैं |