Mahaveer Bhagwan Story in Hindi | भगवान महावीर की कहानियां 

Mahaveer Bhagwan Story in Hindi – दोस्तों क्या आप भी भगवान महावीर की कहानियां पढ़ना चाहते हैं? आज के इस पोस्ट में हम आपको महावीर जी की अलग-अलग कहानियों के बारे में बताने जा रहे हैं| जिसमें हम महावीर जी के कोमल ह्रदय और साहसीपन के बारे में भी बताने जा रहे हैं| अगर आप भी महावीर जी की कथाओं के बारे में जानना चाहते हैं तो हमारे इस पोस्ट को अंत तक जरूर पढ़ें तो चलिए दोस्तों अब हम शुरू करते हैं।

Name of StoryMahaveer Bhagwan Story in Hindi | भगवान महावीर की कहानियां 
Type of StoryLatest Update
CategoryMoral Story
LanguageHindi

निर्धनता से मुक्ति दिलाई – Mahaveer Bhagwan Story in Hindi

एक समय की बात है कि महावीर मुक्ति पथ पर दृढ़ कदमों के साथ बढ़ रहे थे| तभी उनको पीछे से एक क्रूर आवाज सुनाई दी| जैसे ही उन्होंने पीछे मुड़कर देखा तो एक दुर्लभ ब्राह्मण लाठी के सहारे गिरता पड़ता दौड़ा आ रहा था| कुछ देर बाद वह ब्राह्मण महावीर के पास पहुंच गया| उसने महावीर को बोला हे महाराज मैं बहुत गरीब आदमी हूं मेरी निर्धनता दूर कीजिए| 

वह ब्राह्मण अक्सर ही राजकुमार महावीर के पास आता रहता था और राज महावीर से जितना होता था वह उनकी सहायता करते रहते थे| परंतु उस दिन जब उस निर्धन ब्राह्मण ने राजकुमार महावीर से मांगा तो उस समय उनके पास कुछ भी नहीं था तो उनको उस समय अपने कंधे पर पढ़े हुए दिव्य वस्त्र का ध्यान आया| उन्होंने अपने वस्त्र का कुछ हिस्सा काट दिया और उस ब्राह्मण को दे दिया| वह वस्त्र मिलते ही ब्राह्मण बहुत खुश हो गया और वहां से वह सीधा जौहरी के पास चला गया| 

उसने जौहरी को वह वस्त्र दिखाया तो जौहरी ने बोला कि तुम इस वस्त्र का दूसरा हिस्सा भी अगर मेरे पास ले आते हो तो मैं तुम्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दूंगा| यह सुनकर उस बूढ़े ब्राह्मण के मन में लालच आ गया और वह उसी रास्ते पर पीछे पीछे निकल गया जहां राजकुमार महावीर जा रहे थे| उनका पीछा करते-करते आखिर में 1 साल बाद वह राजकुमार के पास पहुंच गया|

उस समय राजकुमार का वस्त्र कंधे से नीचे गिर गया था तो निर्धन ब्राह्मण सोम शर्मा ने उसे उठा लिया और सीधा जौहरी के पास ले गया| जौहरी को वस्त्र का सूद्र हिस्सा भी दे दिया और बदले में जौहरी ने उसे 1 लाख स्वर्ण मुद्राएं दे दी और इस प्रकार गरीब ब्राह्मण की निर्धनता दूर हो गई।

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जीवन की प्रबल इच्छा शक्ति

भगवान महावीर अपने शिष्यों के साथ जन कल्याण के लिए एक जगह से दूसरी जगह पर जाया करते थे| उनके जितने भी शिष्य थे, सभी निष्ठावान थे| ईश्वर के प्रति महावीर के विचारों को जनसामान्य तक पहुंचाने के पर्यतन किया करते थे| एक समय की बात है कि एक बार महावीर अपने एक शिष्य को साथ लेकर किसी सभा के लिए जा रहे थे| परंतु उनका शिष्य उनसे नाराज था और वह हमेशा ही अपने गुरु को गलत साबित करने का मौका ढूंढता रहता था| 

सभा में जाते हुए रास्ते में उनको जंगल पड़ता था| जब वह जंगल से जा रहे थे तो शिष्य ने अपने गुरु से पूछा यह जो सामने पौधा खड़ा है क्या इस पर पुष्प आएंगे| तो महावीर ने कुछ समय के लिए आंखें बंद कर ली और कहा हां अवश्य आएंगे| तब उनके शिष्य ने जंगल से उस पौधे को पकड़कर उखाड़ दिया और नीचे फेंक दिया और हंसने लग गया| शिष्य हंसता हुआ महावीर से बोल रहा था कि आप तो बोल रहे थे इस पर पुष्प आएंगे| लेकिन मैंने तो अभी इसे उखाड़ दिया है| अब इस पर पुष्प कैसे लगेंगे| महावीर जी ने कुछ भी नहीं बोला और आगे चल दिए| 

उस समय बरसात का मौसम था और रस्ता जाने लायक भी नहीं था तो भगवान महावीर और उसका शिष्य 1 सप्ताह के लिए वहीं रुक गए| फिर उन्होंने वापस आना था| वापिस उसी रास्ते से आना था जिस रास्ते से वह गए थे| जब वह वापस आ रहे थे तो उनके शिष्य ने देखा कि जिस पौधे को उसने उखाड़ कर फेंक दिया था वह पौधा हरा भरा पड़ा है और उस पर पुष्प भी लग गए हैं| शिष्य को आश्चर्य हुआ और उसने गुरु से पूछा कि इस पौधे पर पुष्प कैसे आ गए| 

उस समय बरसात का मौसम था| पौधे की जड़ों ने जमीन को पकड़ लिया था| जिसके कारण वह फिर से हरा भरा हो गया था| जब शिष्य ने गुरु से पूछा तो महावीर जी ने कहा कि वह पौधा अभी जीना चाहता है| इसलिए वह कठिन चुनौतियों में भी अपने आप को जीवित रखने में सक्षम रहा है| यही वजह है कि जब तुमने उसको उखाड़ दिया था और फेंक दिया था| वह पुन जीवित खड़ा हो गया है और इस प्रकार शिष्य अपने गुरु की महानता को जान गया था और उसके मन में अपने गुरु को लेकर जितने भी मनमुटाव थे वह सारे दूर हो गए थे।

नैतिक शिक्षा

  • इंसान को अपने गुरु पर हमेशा विश्वास करना चाहिए| 
  • जिस इंसान के अंदर जीने की इच्छा होती है या कुछ प्राप्त करने की इच्छा होती है| वह हमेशा विजई होता है। 
  • इंसान को कठिन चुनौतियों में कभी खुद से हार नहीं माननी चाहिए।

उन्मत हठी हुआ शांत

राजा सिद्धार्थ की गजशाला में सैकड़ों हाथी रहते थे| एक दिन क्या हुआ कि दो हाथी चारे के पीछे आपस में भिड़ गए| उनमें से एक हाथी उन्मत्त होकर गजशाला से भाग निकला| उसके सामने जो भी आता गया वह उसे कुचलता गया| उसने अपने सामने आने वाले सैकड़ों पेड़ और घरों को तहस-नहस कर दिया था| उसको पकड़ने के लिए राजा सिद्धार्थ ने अपने सैनिकों को भेजा परंतु वह भी उसे पकड़ने में असमर्थ रहे। जब यह समाचार वर्दमान को मिला तो वह खुद उस हाथी की तलाश में निकल पड़ा

वर्दमान ने आतंकी राज वासियों को आश्वस्त किया और स्वयं हाथी को खोजने के लिए वहां से चला गया| प्रजा ने चैन की सांस ली क्योंकि उन्हें वर्दमान की शक्ति पर पूरा भरोसा था| उन्हें पूरा भरोसा था कि वर्दमान उस हाथी को वश में कर लेगा| फिर कुछ दिनों के बाद वह हाथी और वर्दमान एक-दूसरे के आमने-सामने हुए| जैसे ही हठी ने वर्दमान को देखा तो वह दूर खड़ा हुआ हाथी तेज रफ्तार से वर्दमान की ओर दौड़ने लगा| वह ऐसे दौड़ रहा था कि आज वह वर्दमान को कुचल कर ही रख देगा| 

परंतु वर्दमान अपनी जगह से नहीं हिला जैसे ही हाथी उसके पास पहुंचने वाला था| वह हाथी वर्दमान के बिल्कुल पास में आकर रुक गया| वह ऐसे रुका जैसे किसी गाड़ी की आपातकालीन ब्रेक लगा दी गई हो। वर्तमान में गजराज की आंखों में देखा और उसे बोला हे गजराज शांत हो जाओ, अपने पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरुप ही तुम्हें पशु योनि मिली है| अगर तुम अभी भी ऐसे ही करोगे, अहिंसा का त्याग नहीं करोगे तो तुम्हें अगले जन्म में नरक की भयंकर पीड़ा सहनी पड़ेगी| तुम अगर अभी भी अहिंसा का साथ छोड़ देते हो तो तुम अपने भावी जीवन को सुखद बना सकते हो।

वर्दमान के मुंह से ऐसे वचन सुनकर हाथी बिल्कुल ही शांत हो गया और उसकी आंखों से आंसू बहने लगे| उसने वर्धमान का अभिवादन  करने के लिए अपनी सूंड ऊपर को उठाई और वर्दमान का अभिवादन किया और शांत होकर वर्धमान के साथ गजशाला की ओर लौट गया|

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ग्वाले को सद्बुद्धि

एक बार की बात है कि एक बार महावीर किसी गांव के पास पहुंचे थे| शाम का समय हो चुका था महावीर वहां एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए थे| तब एक ग्वाला वहां से गुजर रहा था| वह महावीर के पास आया और उन्हें सम्भोदित करके उनसे बोला हे मुनि आप मेरे गायों का ध्यान रखना| मैं गांव में दूध बेचने के लिए जा रहा हूं।

वह ग्वाला महावीर का जवाब सुने बिना ही वहां से चला गया और अपने गायों को महावीर के हवाले छोड़ गया| जब वह ग्वाला दूध बेचने के बाद वापस लौटा तो उसने देखा कि महावीर स्वामी ज्यों के त्यों खड़े हैं| लेकिन गायें वहां नहीं है| उसने पूछा मुनि मेरे पशु कहां है| यह पूछने पर भी महावीर ने कोई जवाब नहीं दिया तो वह ग्वाला इधर उधर देखने लगा और अपनी गाय की तलाश करने के लिए पास में जंगल में चला गया वह| अपने गांव को काफी देर तक ढूंढता रहा ढूंढते ढूंढते रात पड़ गई परंतु ग्वाले को अपनी गाय नहीं मिली| 

कुछ समय के बाद सारी गाय चारा चरने के बाद वापस महावीर के पास आकर खड़ी हो गई और सभी ने चारों तरफ से महावीर को घेर लिया| फिर अगले दिन वह ग्वाला थका हुआ महा ऋषि के पास पहुंचा तो देखा वहां पर सारी गायें लौटकर आ गई है| वह अपने गायों को देख कर आग बबूला हो उठा और बोला इस मुनि ने मुझे तंग करने के लिए मेरी गायों को छुपा रखा था| अभी जाकर जाकर मैं इसकी खबर लेता हूं| यह कहकर उसने गाय को बांधने वाली रस्सी अपनी कमर से खोली और महावीर की ओर प्रहार करने लगा था| 

जैसे ही वह प्रहार करने लगा एक दिव्य पुरुष वहां परगट हुए और उन्होंने बोला कि है मूरख यह तुम क्या कर रहे हो| तुम बिना महावीर का उत्तर सुने अपने गायों को इन के हवाले छोड़ कर वहां से चले गए थे और अब तुम्हारी सारी गाय वापस तुम्हें मिल गई है तो तुम अभी भी महावीर के ऊपर दोष लगा रहे हो| मूर्ख यह भावी तीर्थकर है| यह सुनकर ग्वाला महावीर के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा मांगने गया।

भील का हृदय परिवर्तन 

पुष्कलावती नामक देश में एक घने जंगल में भीलो की बस्ती थी| उस बस्ती के सरदार का नाम पुरुरवा था और उसकी पत्नी का नाम कालिका था| दोनों जंगल में हमेशा घात लगाकर बैठे रहते थे और जब भी कोई उस जंगल से गुजरता था वह उसे लूट लेते थे और उसे मार देते थे यही उनका काम था। 

एक बार की बात है कि सागरसेन नमक एक जैनचर्या उस जंगल से गुजर रहा था तो पुरुरवा की नजर जैसे ही उस पर गई तो उसने उसको लूटने के मकसद से अपना तीर उठाया और उसकी तरफ तीर छोड़ने ही लगा था| तब उसकी पत्नी कालिका ने उसे रोक लिया और कहा कि देखो यह कोई देव पुरुष है इसके चेहरे पर कितना ज्यादा तेज है| इसे मारने की क्या जरूरत है| यह तो बिना मारे ही हमें धन से भर देगा। 

यह बात सुनकर पुरुरवा ने अपना तीर वापिस रख लिया और पुरुरवा अपनी पत्नी के साथ उस मुनि के पास पहुंचा और शांत होकर उसके चरणों में नतमस्तक किया| जैसे ही वह दोनों उस देव पुरुष के पास पहुंचे तो वह देव पुरुष भली-भांति उनको भांप गया था कि वह भील ही 24वें तीरथकर के रूप में जन्म लेने वाला है| देव पुरुष ने उसके कल्याण के लिए उसे उपदेश दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने को भी कहा। उस देव पुरुष की बात को भील ने गाँठ में बांध लिया और अहिंसा का व्रत लेकर अपना बाकी जीवन परोपकार के साथ बिताने लगा।

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चंडकौशिक सर्प की कहानी

महावीर ज्ञान की खोज में नंगे पांव एक स्थान से दूसरे स्थान विचरण करते हुए घनघोर तपस्या कर रहे थे| एक बार वह श्वेताम्बी नगरी में जा रहे थे| जिसका रास्ता एक घने जंगल में से होकर गुजरता था| वहां पर एक चंडकौशिक नाम का एक भयंकर सांप रहता था जो उस जंगल में अपने क्रोध की वजह से बहुत प्रसिद्ध था| उसके देखने से ही पक्षी, जानवर, इंसान मृत हो जाते थे| 

जब गांव वालों को पता चला कि महावीर उस जंगल की ओर जाना चाहते हैं तो गांव वालों ने उन्हें समझाया कि वह उधर से ना आ जाए किसी दूसरे रास्ते से जाएं| परन्तु महावीर अहिंसा के रास्ते पर चलते थे जिस वजह से भयरहित थे और ना ही उनको किसी के लिए नफरत थी और किसी की नफरत को खुद के प्रति वह हिंसा मानते थे| उनके चेहरे पर तेज था, वह साक्षात करुणा की मूर्ति थे| उन्होंने गांव वालों को समझाया कि वे भयभीत न हो और वह जंगल में प्रवेश कर गए| 

कुछ देर चलने के बाद वहां पर जंगल की हरियाणी कम पड़ने लगी और भूमि बंजर होने लगी, वहां के पेड़ पौधे मृत हो चुके थे और जीवन का नामोनिशान भी देखने को मिल नहीं था| तो महावीर समझ गए कि वह चंडकौशिक के इलाके में दाखिल हो चुके हैं| परंतु वह फिर भी नहीं रुके और आगे बढ़ते गए| फिर वह कुछ दूरी आगे चलने के बाद रुक गए और वहां बैठकर ध्यान लगाने लगे| महावीर के ह्रदय से सभी जीव जंतुओं के कल्याण के लिए शांति और करुणा बह रही थी। जब चंडकौशिक सांप को महावीर के आने की आहट सुनी तो वह उसी समय बिल से बाहर निकल आया और वह महावीर की और चल निकला| 

जब उसने महावीर को देखा तो वह बहुत ज्यादा क्रोधित हो गया और वह लाल हो गया| उसने मन में ही सोचा कि इस तुच्छ इंसान की यहां तक आने की हिम्मत कैसे हुई| फिर उसने महावीर की और अपना फन फैलाया और फुंफकारने लगा| परंतु महावीर शांति चकित होकर मुद्रा में बैठे रहे और बिल्कुल भी विचलित नहीं हो रहे थे| यह देखकर चंडकौशिक को और भी ज्यादा क्रोध आ रहा था| उसने फिर से अपना फन फैलाया और तेजी से महावीर की ओर बढ़ने लगा| परंतु इसके बाद भी महावीर शांति से बैठे रहे ना वह वहां से भाग गए ना वह डर रहे थे| यह सब कुछ देख कर सांप का गुस्सा बढ़ता जा रहा था| 

फिर उसने महावीर के ऊपर अपना जहर उड़ेल दिया पर महावीर तब भी अपना ध्यानमग्न थे और उन पर उसके ज़हर का भी कोई असर नहीं हो रहा था| चंडकौशिक सब कुछ देख रहा था और उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कैसे कोई इंसान उसके जहर से बच सकता है| फिर चंदकौशिक और आगे बढ़ा और उसने जाकर महावीर के अंगूठे पर अपने दांत मार दिए|

जैसे ही उसने अपने दांत महावीर के अंगूठे पर मारे तो उनके अंगूठे से खून के बदले दूध निकलने लगा| फिर महावीर ने अपनी आंखें खोली, वह बिलकुल शांत थे उनके मुख पर कोई भय नहीं था ना ही कोई करो था| उन्होंने चंद कौशिक की आंखों में देखा और बोले “उठो उठो चंदकौशिक सोचो तुम क्या कर रहे हो”

महावीर की वाणी में प्रेम और स्नेह था|  चंद्रकौशिक ने इससे पहले इतना निर्भय प्राणी को नहीं देखा था| वह सब कुछ देख कर शांत हो गया| उसके बाद उसे अचानक ही अपने पिछले जन्म की याद आने लगी| वह अपने क्रोध और अभिमान के कारण ही आज इस स्थिति में था| उसे यह सब कुछ ज्ञात हो गया था| अचानक ही उसके हृदय परिवर्तन हो गया और वह प्रेम और अहिंसा के पुजारी बन गया|

जब महावीर वहां से चले गए तो चंडकौशिक चुपचाप अपनी बिल में घुस गया| उसने अपना सिर बिल के अंदर घुसा दिया और उसका शरीर बिल के बाहर ही रहा| धीरे-धीरे यह बात लोगों तक फैलने लगी| चंदकौशिक सांप बदल गया| वह किसी को कुछ नहीं कहता है| 

समय बदलता गया और लोग जंगल में जाने लगे| वहां पर वह उस चंदकोशिक सांप को नाग देवता मानकर दूध, घी से उसकी पूजा करने लगे| परंतु जिन लोगों ने अपने परिजन उसकी वजह से खोए थे वह लोग उस पर ईट, पत्थर मारते रहते थे| इस पर भी चंदकौशिक क्रोधित नहीं होता था और ना ही उन लोगों का विरोध करता था|

वह लहूलुहान जमीन पर पड़ा रहता था क्योंकि लोग उसके ऊपर दूध, घी और मिठाइयां रखते थे| इसलिए वह अपनी जगह से हिलता भी नहीं था| उसे डर था कि कहीं उसके नीचे आकर चीटियां मर ना जाए| अपने इस आत्म संयम और भावनाओं पर नियंत्रण के कारण उसके कई पाप कर्मनष्ट हो गए और मृत्यु के उपरांत वह स्वर्ग को प्राप्त हुआ।

शूलपानी का क्रोध नष्ट कर किया उद्धार

एक बार महावीर घूमते हुए वेदवती नदी के किनारे स्थित एक उजाड़ गांव में पहुंच गए| गांव के बाहर एक मंदिर था| मंदिर के आसपास कंकालों के ढेर लगे हुए थे| यह देखकर महावीर को लगा कि यह साधना करने के लिए अच्छी जगह है| वह अपनी ध्यान साधना करने ही वाले थे तब वहां से कुछ गांव वाले गुजर रहे थे| उन्होंने महावीर को बोला ही महाऋषि आप यहां ज्यादा समय मत रुकिए | प यहां से चले जाइए क्योंकि मंदिर में एक दैत्य शूलपानी रहता है जो आने जाने वाले लोगों को चट कर जाता है| यह इतनी सारी हड्डियां उन अभाग्य लोगों की ही है| 

किसी समय यह गांव हरा भरा हुआ करता था| परंतु उस शूलपानी ने इस गांव को उजाड़ कर रख दिया है| यह कहकर गांव वाले वहां से चले गए| महावीर ने गांव वालों के डर को दूर करने के लिए उस मंदिर में एक स्थान पर खड़े होकर ध्यान करना शुरू कर दिया| ध्यान करते करते वह अंतरकेन्द्रित हो गए| अंधेरा गिरते ही वातावरण में भयंकर गुर्राहट गूंजने लगी| तब उस समय हाथ में भाला लेकर शूलपानी वहां परगट हो गया और उसने महावीर को सुलगते हुए नेत्रों से देखा| शूलपानी को देख कर बहुत गुस्सा आ रहा था कि उस मुनि को डर नहीं लग रहा है| 

शूलपानी यह देख कर आश्चर्य हो रहा था कि उससे भयभीत हुए बिना ही कोई सामने खड़ा होकर साधना में लीन हो रहा है यह देखकर वह अपने मुंह से गड़गड़ाहट का शोर करने लगा और फिर वह मंदिर की दीवारों को भी हिलने लगा था| ताकि वह महावीर कि साधना को भंग कर सके| परंतु उसका इतना कुछ करने के बाद भी महावीर पर कोई भी असर ना हुआ|

ना महावीर भयभीत हुए, ना ही उनकी तंद्रा टूटी| फिर शूलपानी ने अपने छल से एक पागल हाथी को प्रकट किया| उस हाथी ने महावीर को अपनी सूंड के ऊपर उठाकर चारों ओर घुमाना शुरू कर दिया| परंतु महावीर पर इसका भी कोई असर नहीं पड़ा| 

फिर शूलपानी ने एक भयानक राक्षस को प्रकट किया| राक्षस ने नाखून से उन पर प्रहार करना शुरू कर दिया था| परंतु महावीर पर उसका भी कोई असर नहीं पड़ा| फिर उस शूलपानी ने एक भयंकर विषधर को उन पर विष उगलने के लिए छोड़ दिया| परंतु महावीर अपने ध्यान में इतने ज्यादा लीन थे उनको किसी भी चीज से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था| उसके बाद शूलपानी ने अपने भले से महावीर की आंखों, गर्दन, नाक,कान और सिर में चुभोना शुरू कर दिया लेकिन उनके शरीर से बिल्कुल सबंध विच्छेद कर लिया था और उन्हें बिल्कुल भी दर्द महसूस नहीं हो रहा था| 

यह सब कुछ देख कर शूलपानी समझ गया था कि या कोई आम आदमी नहीं है यह कोई दिव्या पुरानी है और फिर शूलपानी  थर थर कांपने लगा था| उसी समय महावीर के शरीर से एक दिव्य आभा निकल के शूलपानी के शरीर में समा गई और देखते ही देखते शूलपानी का क्रोध खत्म हो गया और उसका गर्व चूर चूर हो गया| उसके बाद शूलपानी महावीर के चरणों में गिर गया और उनसे क्षमा मांगने लगा|

महावीर ने अपनी आंखें खोली उसे आशीर्वाद भी दिया और करुणापूर्ण  स्वर से बोले शूलपानी अगर तुम क्रोध करोगे तो तुम्हें आगे से क्रोध मिलेगा, अगर तुम प्रेम करोगे तो आगे से प्रेम मिलेगा| अगर तुम किसी को भयभीत नहीं करोगे तो तुम्हें भय से मुक्ति मिल जतएगी| इसलिए क्रोध की विष बेल को नष्ट कर दो| यह सुनकर शूलपानी की आंखें खुल गई और उसका जीवन बदल गया।

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जैन कवि बनारसी दास की कहानी

बनारसीदास सस्वभाव के बेहद सरल और सौम्य थे| उनका आदर, समाज में बहुत ज्यादा था| वह सदैव समाज में भलाई के कामों में खुद को लगाए रखते थे| वह अपने धन संपत्ति को खुद के लिए इस्तेमाल नहीं करते थे बल्कि समाज के लिए भी अपनी संपत्ति का इस्तेमाल करते थे| एक दिन की बात है कि बनारसी दास घर में खाना खाकर आराम कर रहे थे| तब उन्हें अचानक अपने आसपास किसी के धीरे-धीरे बोलने की आवाज सुनाई दी| जब उन्होंने देखा तो वहां पर चोर घुसे हुए थे| 

उस परिस्थिति में भी बनारसीदास अपने बिस्तर में लेटे रहे| वह अपने बिस्तर से नहीं उठे| कुछ ही समय में उन चोरों ने बनारसी दास के घर के एक एक कोने को फ़िरोला और सारा कीमती सामान एकत्र कर लिया| जाने से पहले उन चोरों ने समान को गठरी में बाँध लिया| जब वह लोग वहां से चलने लगे तो उनसे वह गठरी उठाई नहीं जा रही थी| तब बनारसीदास उठे और एकदम से बोले मई इसे उठाने में मदद कर देता हूं| यह आवाज सुनकर चोर घबरा गए| वह सोच रहे थे कि घर का मालिक सो रहा है परंतु असल में वह सो नहीं रहा था| 

बनारसीदास सब कुछ देख रहा था| उन्होंने चोरों को बोलो कि यह सब व्यर्थ की चीजें हैं, मैं इनका इस्तेमाल नहीं करता हूं, मेरे लिए इतनी मूल्यवान नहीं है| इन चीजों को ले जाओ| उसेक बाद बनारसी दास ने चोरों के सर पर गठरी को रख दिया और उनको जाने के लिए बोला| वह चोर वहां से चोरी का सामान लेकर अपने अपने घर लौट गए और जाकर अपनी स्त्रियों को लूटे हुए सामान के बारे में और बनारसी दास के घर में हुई घटना के बारे में बताया| 

तब उनकी स्त्रियों ने कहा कि कोई भी अपना समान यू ही नहीं देता है| वह इस धन को स्वीकार नहीं करेंगे| उनका हृदय इस लुटे हुए समान को स्वीकार करने की इजाजत नहीं दे रहा है| फिर उसके बाद उन चोरों ने उस लुटे हुए सामान को बनारसीदास को वापस लौटा दिया और बनारसीदास से क्षमा मांगते हुए यह प्रण लिया कि आज के बाद हम कभी भी चोरी नहीं करेंगे।

नैतिक शिक्षा

  • चोरी करना बहुत बड़े पाप के समान होता है। 
  • भौतिक वस्तुएं नश्वर हैं। 
  • ज्ञान से बढ़कर कोई भी वस्तु इस दुनिया में मौजूद नहीं है। 
  • अगर चोरी करना है तो ज्ञान की चोरी करनी चाहिए ना की वस्तुओं की चोरी।

Conclusion

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FAQ (Frequently Asked Questions)

महावीर स्वामी का पहला उपदेश क्या था?

महावीर स्वामी का पहला उपदेश अहिंसा था| उनका मानना था कि हमे अपने मन, वचन और कर्म से कभी भी हिंसा नहीं करनी चाहिए| महावीर स्वामी का सबसे बड़ा सिद्धांत अहिंसा का है।

महावीर का जीवन और उपदेश क्या है?

भगवान महावीर का सबसे बड़ा सिद्धांत अहिंसा है| उन्होंने सिर्फ मानव के साथ प्रेम और मित्रता का संदेश ही नहीं दिया, बल्कि उन्होंने कीड़े मकोड़े, पशु पक्षियों के प्रति भी अहिंसा का उपदेश दिया है।

महावीर स्वामी ने कौन सा धर्म चलाया था?

महावीर स्वामी 24वें तीर्थंकर थे और उन्होंने जैन धर्म की वास्तविक रूप से स्थापना की थी।

महावीर स्वामी के मुख्य उद्देश्य क्या है? 

महावीर स्वामी के मुख्य उपदेश अहिंसा की पालन करना था और अपने मन, कर्म और वचनों से किसी के ऊपर हिंसा न करना ही उनका मुख्य उपदेश था।

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